bismillahir rahmanir Rahim
पोस्ट 4 :🏴🏴🏴
खिलाफते राशिदा और खिलाफते बनू उमय्या
🏴हज़रत अली (رضي الله عنه)
🏴हज़रत अली (رضي الله عنه) की ख़िलाफ़त बडी़ मुश्किल औखिलाफते राशिदा और खिलाफते बनू उमय्यार पेचीदा परिस्थितियों में शुरू हुई।🐎
हज़रत अली (رضي الله عنه) ने तक़रीबन चार साल ख़िलाफ़त की। शाम और मिस्र के अलावा बाक़ी तमाम सल्तनत उनके क़ब्जे़ में थी। चूँकि उनका ज़माना ज़्यादातर ख़ानाजंगी में गुज़रा इसलिए कोई नया मुल्क फ़तह नहीं किया गया। हज़रत अली (رضي الله عنه) की शासन-व्यवस्था बहुत हद तक हज़रत उमर (رضي الله عنه) जैसी थी। उनकी ज़िन्दगी भी उन्हीं की तरह सादा थी। फ़ैसला करते समय वे बडे से बडे आदमी की, यहॉं तक कि अपने रिश्तेदारों की भी रियायत नहीं करते थे। वे ख़ुद को आम जनता के बराबर समझते थे और हमेशा जवाबदेही के लिए तैयार रहते थे। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने अपने बाद किसी को जानशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया।
🏴आर्थिक न्याय 📚
आर्थिक न्याय भी इन्सानी समाज की बुनियादी ज़रूरत है और ख़िलाफ़ते राशिदा में इस पर पूरी तवज्जोह दी गई। बैतुलमाल की रक़म क़ौम की अमानत समझी जाती थी। ख़लीफ़ा इस रक़म को न अपने आप पर ख़र्च करते थे और न अपने रिश्तेदारों पर। ख़लीफ़ा के अपने ख़र्चे के लिए उनकी तनख़्वाहें मुक़र्रर होती थी और यदि उन्हें कभी तनख़्वाह के अलावा पैसे की ज़रूरत होती थी तो वह उसे लेने से पहले अवाम से इजाज़त लेते थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) चूँकि दौलतमंद थे, इसलिए वह बैतुलमाल से कोई तनख़्वाह नहीं लेते थे। बैतुलमाल को जिस प्रकार ख़लीफ़ा ने क़ौम की अमानत समझा और इस सम्बन्ध में जिस ज़िम्मेदारी के अहसास का सबूत दिया उसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नही मिलता।
🏴जंगों में जिहाद की रूह🐎
🌍
इस्लाम में जंग सिर्फ ख़ुदा की राह में जायज़ है और इसीलिए इस्लामी जंग को 'जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह' कहा जाता है। मुसलमानों का तरीक़ा था कि लडा़ई शुरू करने से पहले दुश्मन को इस्लाम की दावत देते थे और जब वह इन्कार कर देता तो इस्लामी रियासत का आज्ञापालक बनने को कहते थे और जंग तभी शुरू करते थे जब दुश्मन इन दो बातों को रद्द कर देता था। यह दुनिया की तारीख़ में बिल्कुल नई चीज़ थी और इसने जंग को प्रसिद्धि, सामाज्य विस्तार और दूसरों को दास बनाने का ज़रिया बनाने के बजाय सुधार का ज़रिया बना दिया था। यही कारण है कि जब जंग का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने देखा कि मुसलमानों को इन लडा़इयों में लूट-खसोट, बर्बरता, ज़ुल्म और अत्याचार नज़र नहीं आता जो जंग के साथ अनिवार्य समझा जाता है।
शाम (सीरिया) पर चढा़ई के लिए जब पहला लश्कर मदीना से रवाना हुआ तो हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने जो इस हिदायतें दीं वे जंगों की तारीख में 'मील का पत्थर' की हैसियत रखती हैं। आपने हिदायत की कि किसी औरत, बूढे़ और बच्चे का क़त्ल न किया जाए, फलदार पेडो़ं को न काटा जाए, आबाद जगह वीरान न की जाए, नख़लिस्तान (मरूद्यान) न जलाए जाए और ईसाई पादरियों को क़त्ल न किया जाए। ये हिदायतें एक बार नहीं बार-बार दी गई और इन पर पूरी तरह अमल भी किया गया।
ख़िलाफ़ते राशिदा में जंगों की जीत न सिकन्दर की जीतों से कम थी और न रूमियों और हूणों की जीतों से। लेकिन इसके बाद भी ख़िलाफ़ते राशिदा की जीतें इतनी शान्ति पूर्ण थी कि उन्हें जंगों की बजाय लूटेरो के खिलाफ़ पुलिस की कार्यवाही क़रार देना ज़्यादा सही है। कहीं क़त्ले आम नहीं हुआ, शहरों को उजाडा़ और लूटा नहीं गया और न कही औरतों की बेइज़्ज़ती हुई। एक बार एक शख़्स के खेतों को फ़ौज से नुक़्सान हुआ तो उसने मुक़दमा कर दिया और हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उसको हर्जाना दिलाया। फ़ौज के सदाचरण का यह हाल था कि जब दमिश्क (Damascus) में दाखिल हुई तो घर के छज्जों से रूमियों की औरतें उन्हें देखने के लिए जमा हो गई थीं, लेकिन किसी फ़ौजीं ने उन्हें आंख उठाकर नहीं देखा। इसलिए कि क़ुरआन में ऐसे मौक़ो पर नज़रें नीची रख़ने की शिक्षा दी गई थी। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) कहते है कि जब सहाबा की फ़ौजें शाम (सीरिया) की सरज़मीन में दाखिल हुई तो शाम के ईसाई कहते थे कि मसीह के हवारियों की जो शान हम सुनते थे, ये तो उसी शान के लोग नज़र आते हैं।
📚ख़िलाफ़ते राशिदा में तालीमी व्यवस्था
इस्लामी समाज में रिश्वत सबसे घटिया अपराध माना जाता है। ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर इस बुराई से पाक था और इसका सबसे बडा़ कारण यह था कि वे इस्लामी आदेशों पर अमल करना ईमान में शामिल समझते थे। ख़िलाफ़ते राशिदा में सरकारी देख-रेख में शिक्षा के विकास पर बल दिया गया। इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में हर जगह क़ुरआन की शिक्षा के लिए मकतब क़ायम किए गए जिनमें पढ़ना और लिखना दोनों सिखाए जाते थे। इन मकतबों में तनख़्वाहदार शिक्षक रखे गए थे। सिर्फ हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने में मस्जिदों की तादाद चार हज़ार से ज़्यादा हो गई थी। ये मस्जिदें, जिनमें तनख़्वाहदार इमाम और मोअज़्ज़िन रखे गए थे, बाद में धीरे-धीरे मदरसों में बदलती गई। शिक्षा के विकास और व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में सिर्फ़ कूफ़ा शहर में तीन सौ हाफिजे़ क़ुरआन थे जो मदीना के बाद शिक्षा का सबसे बडा़ केन्द्र था। दूसरे बडे शिक्षा के केन्द्र मक्का, बसरा, दमिश्क़ और फिस्तात थे।
🏴ख़िलाफ़ते राशिदा में रहने वाले ग़ुलाम और ज़िम्मी 🏴
ख़िलाफ़ते राशिदा में ग़ुलामी-प्रथा के सुधार और समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए गए। इस ज़माने में ग़ुलामों को बडी़ तादाद में आज़ाद किया गया और अंदाज़ा है कि ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में 39 हज़ार से ज़्यादा ग़ुलाम आज़ाद किए गए। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने विशेष रूप से ग़ुलामी-प्रथा की समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के दौर में जो लोग ग़ुलाम बनाए गए थे, हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन सबको आज़ाद कर दिया और हुक्म दिया कि अब किसी को ग़ुलाम बिल्कुल न बनाया जाए। गै़र-अरब को भी ग़ुलाम बनाने के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने प्रोत्साहन नहीं दिया। जब मिस्र से कुछ ग़ुलाम मदीना लाए गए तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन्हें वापस कर दिया और मिस्र के हाकिम हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) को उन्होंने जिन शब्दों में निर्देश दिया उसे ग़ुलामी के इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। आपने लिखा – ''इनकी मांओं ने इन्हें आज़ाद जना है और किसी को यह हक़ नहीं पहुँचता कि वह इनका यह फितरी हक (प्राकृतिक अधिकार) छीन ले।''
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ग़ुलामों का इतना ख़्याल रखते थे कि उन्हें अपने साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उन्होंने एक बार एक हाकिम को केवल इस जुर्म में अपदस्थ कर दिया था कि वह बीमार ग़ुलाम की 'अयादत' (बीमार का हाल पूछना) को नहीं गए थे। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने वज़ीफ़ा तय करते समय भी आक़ा और ग़ुलाम का फ़र्क़ मिटा दिया और ग़ुलामों का वज़ीफ़ा उनके आक़ाओं के बराबर मुक़र्रर किया। ग़ुलाम आज़ाद करना चूँकि सवाब (पूण्य) का काम था इसलिए हज़रत उसमान (رضي الله عنه) हर जुमा को एक ग़ुलाम आज़ाद करते थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में सिर्फ़ वही लोग ग़ुलाम बनाए जा सकते थे जो जंगों में पकडे़ जाते थे। उनकी हैसियत दरअसल जंगी क़ैदियों की होती थी। चूँकि उन्हें सारी उम्र क़ैदी की हैसियत में रखना ग़ैर-इन्सानी काम होता, जैसा की आजकल होता है जिस मे जंग मे दौरान या सरहदों पर क़ैद किये गये क़ैदियों को पूरी ज़िन्दगी दुश्मन मुल्क मे क़ैद रहना पड जाता है, इसलिए उन्हें ग़ुलाम बनाकर घर और समाज का उपयोगी सदस्य बना लिया जाता था।
🏴इस्लाम का प्रचार (दावत)
ख़िलाफ़ते राशिदा की सीमा में विभिन्न नस्ल, भाषा और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली क़ौमे आबाद थीं। ईरान, इराक़, शाम और मिस्र में इस्लाम तेज़ी से फैल रहा था और यहॉं की क़ौमें अपने पैतृक धर्म को छोड़कर इस्लाम में शामिल हो रही थीं, लेकिन इन मुल्कों की बहुसंख्यक अब भी गै़र-मुस्लिम थी। मुसलमान नागरिकों को, चाहे वे किसी मुल्क अथवा नस्ल से सम्बन्ध रखते हों, वही अधिकार प्राप्त थे जो अरब मुसलमानों को प्राप्त थे। उनका गै़र-अरब होना अरबों के बराबर अधिकार प्राप्त करने की राह में बाधक नहीं था। आम नागरिक की हैसियत से गै़र-मुस्लिमों को मुसलमानों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। इस्लामी हुकूमत ने चूँकि अनकी उन्नति और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अपने जिम्मा ली थी, इसलिए उस गै़र-मुस्लिम आबादी को ज़िम्मी कहा जाता था। ज़िम्मियों पर फ़ौजी सेवा अनिवार्य नहीं थी और इसके बदले में उनसे एक मामूली टैक्स लिया जाता था जो जिज़्या कहलाता था। ख़िलाफ़ते राशिदा में इसकी मिसालें मौजूद हैं कि जब मुसलमान किसी जीते हुए इलाक़े की हिफाज़त नहीं कर सकते थे और उस इलाक़े को ख़ाली करने को मजबूर होते थे तो जिज़्या की रक़म गै़र-मुस्लिमों को वापस कर देते थे। जंगें हारी हुई क़ौमों और दूसरे धर्मो के लोगों से ऐसे न्याय पर आधारित सुलूक की मिसाल इस्लामी खिलाफत के अलावा दूसरी ग़ैर-इस्लामी रियासतों के इतिहास मे नहीं मिलेगी। इस्लामी हुकूमत मुसलमानों की तरह गै़र-मुस्लिमों के आर्थिक आत्मनिर्भरता की भी जिम्मेदार थी और गै़र-मुस्लिम मुहताज हो जाते थे उन्हें सरकारी बैतुलमाल से वज़ीफ़ा दिया जाता था। कुछ जगहों की ज़िम्मी आबादी को एक विशेष प्रकार का लिबास पहनने की हिदायत दी गई थी, परन्तु उसका मक़सद उन्हें अपमानित करना नहीं था जैसा कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम इतिहासकार इल्ज़ाम लगाते हैं। इस्लाम में चूँकि लिबास के मामले में मुसलमानों को गै़र-मुस्लिमों से एकरूपता पैदा करने से मना किया गया है, इसलिए इस पाबंदी का मक़सद दोनों क़ौमों की व्यक्तिगत पहचान को क़ायम रखना था, किसी को अपमानित करना या किसी को निम्न समझना इस आदेश का मक़सद नहीं था।
किसी क़ौम की तारीख़ में तीस साल की अवधि बहुत कम होती है। परन्तु ठोस कारनामों को सामने रखा जाए तो ख़िलाफ़ते राशिदा के ये तीस साल दूसरी क़ौमों के सैकडो़ सालों के इतिहास पर भारी हैं। इस अल्प अवधि में इस मामूली रियासत जो अरब प्रायद्वीप तक सीमित थी, दुनिया की सबसे बडी़ और शक्तिशाली रियासत बन गई।
इराक़, शाम और मिस्र थे, जहॉं इन्सान ने सबसे पहले सभ्यता का पाठ पढा़ था और जिसके कारण उस क्षेत्र को सभ्यता का केन्द्र कहा जाता है। तीस साल की इस अल्प अवधि में उन तमाम प्रचीन क़ौमों की राजनीतिक शक्ति ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि सभ्यता के मैदान में भी उन्हें हार माननी पडी़। उन्होंने तेज़ी से अपने पुराने धर्म को छोड़कर इस्लाम क़बूल करना शुरू किया कि आगामी पचास-साठ साल की अवधि में उन मुल्कों की लगभग सारी आबादी मुसलमान को गई और ये मुल्क हमेशा के लिए इस्लामी दुनिया का हिस्सा बन गए। धर्म के साथ ही इन क़ौमों का जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण भी बदल गया और इस प्रकार एक नई सभ्यता का बुनियाद पडी़ जो स्थानीय विशेषताओं के बावजूद इस्लामी सभ्यता सभ्यता कहलाई और जिसके चिह्न चौदह सौ साल बाद आज भी बाक़ी हैं। मुसलमानों की यह महान सफलता, तलवार का नतीजा नहीं थी, बल्कि इस्लाम की श्रेष्ठ एवं उच्च शिक्षाओं का नतीजा थी।
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नेक्स्ट........🏴🏴🏴
ख़िलाफत के कारनामे
ख़िलाफते राशिदा के बाद
पूरब और पश्चिम की फ़तह
खिलाफते बनू उमय्या का दौर
अमीर मुआविया (رضي الله عنه)
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पोस्ट 4 :🏴🏴🏴
खिलाफते राशिदा और खिलाफते बनू उमय्या
🏴हज़रत अली (رضي الله عنه)
🏴हज़रत अली (رضي الله عنه) की ख़िलाफ़त बडी़ मुश्किल औखिलाफते राशिदा और खिलाफते बनू उमय्यार पेचीदा परिस्थितियों में शुरू हुई।🐎
हज़रत अली (رضي الله عنه) ने तक़रीबन चार साल ख़िलाफ़त की। शाम और मिस्र के अलावा बाक़ी तमाम सल्तनत उनके क़ब्जे़ में थी। चूँकि उनका ज़माना ज़्यादातर ख़ानाजंगी में गुज़रा इसलिए कोई नया मुल्क फ़तह नहीं किया गया। हज़रत अली (رضي الله عنه) की शासन-व्यवस्था बहुत हद तक हज़रत उमर (رضي الله عنه) जैसी थी। उनकी ज़िन्दगी भी उन्हीं की तरह सादा थी। फ़ैसला करते समय वे बडे से बडे आदमी की, यहॉं तक कि अपने रिश्तेदारों की भी रियायत नहीं करते थे। वे ख़ुद को आम जनता के बराबर समझते थे और हमेशा जवाबदेही के लिए तैयार रहते थे। हज़रत अली (رضي الله عنه) ने अपने बाद किसी को जानशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर नहीं किया।
🏴आर्थिक न्याय 📚
आर्थिक न्याय भी इन्सानी समाज की बुनियादी ज़रूरत है और ख़िलाफ़ते राशिदा में इस पर पूरी तवज्जोह दी गई। बैतुलमाल की रक़म क़ौम की अमानत समझी जाती थी। ख़लीफ़ा इस रक़म को न अपने आप पर ख़र्च करते थे और न अपने रिश्तेदारों पर। ख़लीफ़ा के अपने ख़र्चे के लिए उनकी तनख़्वाहें मुक़र्रर होती थी और यदि उन्हें कभी तनख़्वाह के अलावा पैसे की ज़रूरत होती थी तो वह उसे लेने से पहले अवाम से इजाज़त लेते थे। हज़रत उसमान (رضي الله عنه) चूँकि दौलतमंद थे, इसलिए वह बैतुलमाल से कोई तनख़्वाह नहीं लेते थे। बैतुलमाल को जिस प्रकार ख़लीफ़ा ने क़ौम की अमानत समझा और इस सम्बन्ध में जिस ज़िम्मेदारी के अहसास का सबूत दिया उसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नही मिलता।
🏴जंगों में जिहाद की रूह🐎
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इस्लाम में जंग सिर्फ ख़ुदा की राह में जायज़ है और इसीलिए इस्लामी जंग को 'जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह' कहा जाता है। मुसलमानों का तरीक़ा था कि लडा़ई शुरू करने से पहले दुश्मन को इस्लाम की दावत देते थे और जब वह इन्कार कर देता तो इस्लामी रियासत का आज्ञापालक बनने को कहते थे और जंग तभी शुरू करते थे जब दुश्मन इन दो बातों को रद्द कर देता था। यह दुनिया की तारीख़ में बिल्कुल नई चीज़ थी और इसने जंग को प्रसिद्धि, सामाज्य विस्तार और दूसरों को दास बनाने का ज़रिया बनाने के बजाय सुधार का ज़रिया बना दिया था। यही कारण है कि जब जंग का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने देखा कि मुसलमानों को इन लडा़इयों में लूट-खसोट, बर्बरता, ज़ुल्म और अत्याचार नज़र नहीं आता जो जंग के साथ अनिवार्य समझा जाता है।
शाम (सीरिया) पर चढा़ई के लिए जब पहला लश्कर मदीना से रवाना हुआ तो हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) ने जो इस हिदायतें दीं वे जंगों की तारीख में 'मील का पत्थर' की हैसियत रखती हैं। आपने हिदायत की कि किसी औरत, बूढे़ और बच्चे का क़त्ल न किया जाए, फलदार पेडो़ं को न काटा जाए, आबाद जगह वीरान न की जाए, नख़लिस्तान (मरूद्यान) न जलाए जाए और ईसाई पादरियों को क़त्ल न किया जाए। ये हिदायतें एक बार नहीं बार-बार दी गई और इन पर पूरी तरह अमल भी किया गया।
ख़िलाफ़ते राशिदा में जंगों की जीत न सिकन्दर की जीतों से कम थी और न रूमियों और हूणों की जीतों से। लेकिन इसके बाद भी ख़िलाफ़ते राशिदा की जीतें इतनी शान्ति पूर्ण थी कि उन्हें जंगों की बजाय लूटेरो के खिलाफ़ पुलिस की कार्यवाही क़रार देना ज़्यादा सही है। कहीं क़त्ले आम नहीं हुआ, शहरों को उजाडा़ और लूटा नहीं गया और न कही औरतों की बेइज़्ज़ती हुई। एक बार एक शख़्स के खेतों को फ़ौज से नुक़्सान हुआ तो उसने मुक़दमा कर दिया और हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उसको हर्जाना दिलाया। फ़ौज के सदाचरण का यह हाल था कि जब दमिश्क (Damascus) में दाखिल हुई तो घर के छज्जों से रूमियों की औरतें उन्हें देखने के लिए जमा हो गई थीं, लेकिन किसी फ़ौजीं ने उन्हें आंख उठाकर नहीं देखा। इसलिए कि क़ुरआन में ऐसे मौक़ो पर नज़रें नीची रख़ने की शिक्षा दी गई थी। इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) कहते है कि जब सहाबा की फ़ौजें शाम (सीरिया) की सरज़मीन में दाखिल हुई तो शाम के ईसाई कहते थे कि मसीह के हवारियों की जो शान हम सुनते थे, ये तो उसी शान के लोग नज़र आते हैं।
📚ख़िलाफ़ते राशिदा में तालीमी व्यवस्था
इस्लामी समाज में रिश्वत सबसे घटिया अपराध माना जाता है। ख़िलाफ़ते राशिदा का दौर इस बुराई से पाक था और इसका सबसे बडा़ कारण यह था कि वे इस्लामी आदेशों पर अमल करना ईमान में शामिल समझते थे। ख़िलाफ़ते राशिदा में सरकारी देख-रेख में शिक्षा के विकास पर बल दिया गया। इस्लामी ख़िलाफ़त की सीमा में हर जगह क़ुरआन की शिक्षा के लिए मकतब क़ायम किए गए जिनमें पढ़ना और लिखना दोनों सिखाए जाते थे। इन मकतबों में तनख़्वाहदार शिक्षक रखे गए थे। सिर्फ हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने में मस्जिदों की तादाद चार हज़ार से ज़्यादा हो गई थी। ये मस्जिदें, जिनमें तनख़्वाहदार इमाम और मोअज़्ज़िन रखे गए थे, बाद में धीरे-धीरे मदरसों में बदलती गई। शिक्षा के विकास और व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के अहद में सिर्फ़ कूफ़ा शहर में तीन सौ हाफिजे़ क़ुरआन थे जो मदीना के बाद शिक्षा का सबसे बडा़ केन्द्र था। दूसरे बडे शिक्षा के केन्द्र मक्का, बसरा, दमिश्क़ और फिस्तात थे।
🏴ख़िलाफ़ते राशिदा में रहने वाले ग़ुलाम और ज़िम्मी 🏴
ख़िलाफ़ते राशिदा में ग़ुलामी-प्रथा के सुधार और समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए गए। इस ज़माने में ग़ुलामों को बडी़ तादाद में आज़ाद किया गया और अंदाज़ा है कि ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में 39 हज़ार से ज़्यादा ग़ुलाम आज़ाद किए गए। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने विशेष रूप से ग़ुलामी-प्रथा की समाप्ति के सिलसिले में कई क़दम उठाए। हज़रत अबू बक्र (رضي الله عنه) के दौर में जो लोग ग़ुलाम बनाए गए थे, हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन सबको आज़ाद कर दिया और हुक्म दिया कि अब किसी को ग़ुलाम बिल्कुल न बनाया जाए। गै़र-अरब को भी ग़ुलाम बनाने के सिलसिले में हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने प्रोत्साहन नहीं दिया। जब मिस्र से कुछ ग़ुलाम मदीना लाए गए तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उन्हें वापस कर दिया और मिस्र के हाकिम हज़रत अम्र बिन आस (رضي الله عنه) को उन्होंने जिन शब्दों में निर्देश दिया उसे ग़ुलामी के इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। आपने लिखा – ''इनकी मांओं ने इन्हें आज़ाद जना है और किसी को यह हक़ नहीं पहुँचता कि वह इनका यह फितरी हक (प्राकृतिक अधिकार) छीन ले।''
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ग़ुलामों का इतना ख़्याल रखते थे कि उन्हें अपने साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उन्होंने एक बार एक हाकिम को केवल इस जुर्म में अपदस्थ कर दिया था कि वह बीमार ग़ुलाम की 'अयादत' (बीमार का हाल पूछना) को नहीं गए थे। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने वज़ीफ़ा तय करते समय भी आक़ा और ग़ुलाम का फ़र्क़ मिटा दिया और ग़ुलामों का वज़ीफ़ा उनके आक़ाओं के बराबर मुक़र्रर किया। ग़ुलाम आज़ाद करना चूँकि सवाब (पूण्य) का काम था इसलिए हज़रत उसमान (رضي الله عنه) हर जुमा को एक ग़ुलाम आज़ाद करते थे।
ख़िलाफ़ते राशिदा के ज़माने में सिर्फ़ वही लोग ग़ुलाम बनाए जा सकते थे जो जंगों में पकडे़ जाते थे। उनकी हैसियत दरअसल जंगी क़ैदियों की होती थी। चूँकि उन्हें सारी उम्र क़ैदी की हैसियत में रखना ग़ैर-इन्सानी काम होता, जैसा की आजकल होता है जिस मे जंग मे दौरान या सरहदों पर क़ैद किये गये क़ैदियों को पूरी ज़िन्दगी दुश्मन मुल्क मे क़ैद रहना पड जाता है, इसलिए उन्हें ग़ुलाम बनाकर घर और समाज का उपयोगी सदस्य बना लिया जाता था।
🏴इस्लाम का प्रचार (दावत)
ख़िलाफ़ते राशिदा की सीमा में विभिन्न नस्ल, भाषा और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली क़ौमे आबाद थीं। ईरान, इराक़, शाम और मिस्र में इस्लाम तेज़ी से फैल रहा था और यहॉं की क़ौमें अपने पैतृक धर्म को छोड़कर इस्लाम में शामिल हो रही थीं, लेकिन इन मुल्कों की बहुसंख्यक अब भी गै़र-मुस्लिम थी। मुसलमान नागरिकों को, चाहे वे किसी मुल्क अथवा नस्ल से सम्बन्ध रखते हों, वही अधिकार प्राप्त थे जो अरब मुसलमानों को प्राप्त थे। उनका गै़र-अरब होना अरबों के बराबर अधिकार प्राप्त करने की राह में बाधक नहीं था। आम नागरिक की हैसियत से गै़र-मुस्लिमों को मुसलमानों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। इस्लामी हुकूमत ने चूँकि अनकी उन्नति और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अपने जिम्मा ली थी, इसलिए उस गै़र-मुस्लिम आबादी को ज़िम्मी कहा जाता था। ज़िम्मियों पर फ़ौजी सेवा अनिवार्य नहीं थी और इसके बदले में उनसे एक मामूली टैक्स लिया जाता था जो जिज़्या कहलाता था। ख़िलाफ़ते राशिदा में इसकी मिसालें मौजूद हैं कि जब मुसलमान किसी जीते हुए इलाक़े की हिफाज़त नहीं कर सकते थे और उस इलाक़े को ख़ाली करने को मजबूर होते थे तो जिज़्या की रक़म गै़र-मुस्लिमों को वापस कर देते थे। जंगें हारी हुई क़ौमों और दूसरे धर्मो के लोगों से ऐसे न्याय पर आधारित सुलूक की मिसाल इस्लामी खिलाफत के अलावा दूसरी ग़ैर-इस्लामी रियासतों के इतिहास मे नहीं मिलेगी। इस्लामी हुकूमत मुसलमानों की तरह गै़र-मुस्लिमों के आर्थिक आत्मनिर्भरता की भी जिम्मेदार थी और गै़र-मुस्लिम मुहताज हो जाते थे उन्हें सरकारी बैतुलमाल से वज़ीफ़ा दिया जाता था। कुछ जगहों की ज़िम्मी आबादी को एक विशेष प्रकार का लिबास पहनने की हिदायत दी गई थी, परन्तु उसका मक़सद उन्हें अपमानित करना नहीं था जैसा कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम इतिहासकार इल्ज़ाम लगाते हैं। इस्लाम में चूँकि लिबास के मामले में मुसलमानों को गै़र-मुस्लिमों से एकरूपता पैदा करने से मना किया गया है, इसलिए इस पाबंदी का मक़सद दोनों क़ौमों की व्यक्तिगत पहचान को क़ायम रखना था, किसी को अपमानित करना या किसी को निम्न समझना इस आदेश का मक़सद नहीं था।
किसी क़ौम की तारीख़ में तीस साल की अवधि बहुत कम होती है। परन्तु ठोस कारनामों को सामने रखा जाए तो ख़िलाफ़ते राशिदा के ये तीस साल दूसरी क़ौमों के सैकडो़ सालों के इतिहास पर भारी हैं। इस अल्प अवधि में इस मामूली रियासत जो अरब प्रायद्वीप तक सीमित थी, दुनिया की सबसे बडी़ और शक्तिशाली रियासत बन गई।
इराक़, शाम और मिस्र थे, जहॉं इन्सान ने सबसे पहले सभ्यता का पाठ पढा़ था और जिसके कारण उस क्षेत्र को सभ्यता का केन्द्र कहा जाता है। तीस साल की इस अल्प अवधि में उन तमाम प्रचीन क़ौमों की राजनीतिक शक्ति ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि सभ्यता के मैदान में भी उन्हें हार माननी पडी़। उन्होंने तेज़ी से अपने पुराने धर्म को छोड़कर इस्लाम क़बूल करना शुरू किया कि आगामी पचास-साठ साल की अवधि में उन मुल्कों की लगभग सारी आबादी मुसलमान को गई और ये मुल्क हमेशा के लिए इस्लामी दुनिया का हिस्सा बन गए। धर्म के साथ ही इन क़ौमों का जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण भी बदल गया और इस प्रकार एक नई सभ्यता का बुनियाद पडी़ जो स्थानीय विशेषताओं के बावजूद इस्लामी सभ्यता सभ्यता कहलाई और जिसके चिह्न चौदह सौ साल बाद आज भी बाक़ी हैं। मुसलमानों की यह महान सफलता, तलवार का नतीजा नहीं थी, बल्कि इस्लाम की श्रेष्ठ एवं उच्च शिक्षाओं का नतीजा थी।
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नेक्स्ट........🏴🏴🏴
ख़िलाफत के कारनामे
ख़िलाफते राशिदा के बाद
पूरब और पश्चिम की फ़तह
खिलाफते बनू उमय्या का दौर
अमीर मुआविया (رضي الله عنه)
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